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Saturday, June 3, 2017

क्या हम इस लिए मुसलमान बने थे

मुसलमान के नाम से जो कौम इस वक्त मौजूद है वह खुद भी इस हकीकत को भूल गई है और इसके आचार-व्यवहार ने दुनिया को भी यह बात भुला दी है कि इस्लाम एक आंदोलन का नाम है जो दुनिया में एक उद्देश्य और कुछ सिद्धांत लेकर उठा था और मुसलमान उस जमाअत का नाम रखा गया था जो इस आंदोलन को चलाने के लिए बनाई गई थी। आंदोलन गुम हो गया है, उसका उद्देश्य भुला दिया गया है, उसके सिद्धांतो को एक-एक कर के तोड़ा गया है और उसका नाम अपना मतलब खो देने के बाद सिर्फ एक मुस्लिम कौमियत के नाम से इस्तेमाल किया जा रहा है। हद यह है कि उन जगहों पर भी इस्तेमाल किया जाता है जहां इस्लाम की बजाए गैर-इस्लाम होता है।
        समाज में जाइए, आपकी मुलाकात मुसलमान शराबियों से होगी, दफ्तर में जाइए, मुसलमान-रिश्वतखोर, अदालत में जाइए, झूठ की गवाही, जालसाजी, फरेब, जुल्म और हर किस्म के नैतिक अपराधों के साथ-साथ मुसलमान शब्द का जोड़ लगा हुआ पाएंगे। जरा गौर तो कीजिए, यह मुसलमान शब्द कितना ज़लील कर दिया गया है! मुसलमान और शराबी! मुसलमान और रिश्वतखोरी! अगर यह सब कुछ एक मुसलमान भी करने लगे तो मुसलमान के अस्तित्व की इस दुनिया में जरुरत ही क्या है?
        इस्लाम तो नाम ही उस आंदोलन का था, जो इन बुराइयों को मिटाने के लिए उठा था। उसने तो मुसलमानों के नाम से चुने हुए लोगों की एक जमाअत बनाई थी, जो खुद उच्च स्तर के लोग थे और समाज सुधार के अलंबरदार थे। उसने अपनी जमाअत में हाथ काटने की, पत्थर मारने की, कोड़े बरसाने की सजाएं इसीलिए तो तय की थीं कि जो जमाअत दुनिया से चोरी, व्यभिचार, बलात्कार आदि को मिटाने के लिए उठी है, खुद उसमें कोई सदस्य ऐसा ना पाया जाए। जिसका काम शराब और चोरी को ख़त्म करना हो उसमें कोई शराबी और चोर ना हो। उसका तो मकसद ही यह था कि जिन लोगों को दुनिया का सुधार करना है वह दुनिया भर से ज्यादा सूचरित्र, उच्च स्तरीय और स्वाभिमानी लोग हों।
        जिस इस्लाम ने ऐसे कड़े अनुशासन के साथ अपना आंदोलन उठाया था और जिसने अपनी जमाअत में छांट-छांट कर सिर्फ उच्च नैतिक स्तर के लोगों को भर्ती किया था, उसकी रुसवाई इससे बढ़कर और क्या हो सकती है कि चोर और शराबी के साथ मुसलमान नाम का जोड़ लग जाए। क्या इस तरह से बेइज्जत होने के बाद भी इस्लाम और मुसलमान की यह अहमियत बाकी रह सकती है कि सर इसके आगे श्रद्धा से झुक जाएं?
        हमारे पढ़े-लिखे तबके की हालत भी कुछ अच्छी नहीं है। सूद का पैसा खाना, जकात न देना, नमाज-रोज से लापरवाही बरतना वगैहरा, इनके लिए जाएज़ हो चुकी है। अपनी जिंदगी के किसी मामले में भी इनको यह मालूम करने की परवाह नहीं होती कि खुदा का कानून इसके बारे में क्या कहता है। यानी कि निचले स्तर से लेकर ऊपर के स्तर तक, आप इस नाम के मुस्लिम समाज का जायज़ा लें तो इसमें आपको भांति-भांति के मुसलमान नजर आएंगे। यह एक चिड़ियाघर है जिसमें हर किस्म के जानवर इकट्ठा कर लिए गए हैं।
        मुसलमानों की जिंदगी के अलग-अलग पहलुओं से यह कुछ मिसालें जो मैंने पेश की हैं, यह सब एक ही नतीजे की तरफ इशारा कर रही हैं कि इस्लामी आंदोलन इस वक्त अपने पतन के आखिरी दौर में पहुंच चुका है। जहां एक आंदोलन की आत्मा मर जाती है, सिर्फ उसका नाम बाकी रह जाता है।
        मेरे दिल ने बार-बार यह सवाल किया कि इस्लाम, जो कभी आंधी और तूफान की तरह उठा था, जिसके सामने दुनिया की कोई ताकत न ठहर सकी, आज इसकी ताकत किस चीज ने छीन ली? इसका जवाब हर बार मुझे यही मिला कि इस्लामी आंदोलन पर पतन का वही कानून लागू हुआ जिसका मैं ऊपर जिक्र कर चुका हूं। अब सुधार की कोशिश इसके सिवा कुछ नहीं कि इस्लाम को फिर से एक आंदोलन की हैसियत से उठाया जाए और मुसलमान के मायने को फिर से ताज़ा किया जाए। मुर्दों की इस बस्ती में जो थोड़े बहुत मुस्लिम दिल अभी धड़क रहे हैं, उनको जान लेना चाहिए कि अब करने का काम यही है।

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