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Thursday, December 27, 2018

मिर्ज़ा ग़ालिब

हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब‘ मर गया पर याद आता है,

आज संडे था न जाने क्या ख्याल आया दिल ने कहा चलो चचा ग़ालिब से मुलाकात की जाय
बल्लीमारन की गली कासीम जान में जाकर एक चाय वाले से पूछना पड़ा हवेली के बारे में

खैर हम उस हवेली के मुख्य द्वार तक
पहुँच गए जो खुला हुआ था. जहां १५० साल पहले उर्दू का
वह महान शायर रहा करता था.जहां १८६९ में ग़ालिब की मौत के बाद फ़ोन बूथ व अन्य
दुकाने खुल गईं थीं , लोगों ने अपना कब्जा कर लिया था.और आज
भी जिसके अधिकाँश हिस्से में यही सब काबिज है. 

सन २००० में भारतीय सरकार की
आँखें खुलीं और उन्होंने इस हवेली के कुछ हिस्से को कुछ कब्जाइयों से छुड़ा कर उस महान शायर की यादों के हवाले कर
दिया। आज उसी छोटे से हिस्से के बड़े से गेट पर चौकीदार  कम गाइड कम परिचर एक बुजुर्गवार बैठे हुए थे.

हमारे अन्दर घुसते ही वे पीछे
पीछे आ गए और जितना उन्हें उस हवेली के छोटे से हिस्से के बारे में मालूम था प्रेम
से बताने लगे.

उन्होंने ही बताया कि सरकार के इस
हिस्से को संग्रहालय के तौर पर हासिल करने के बाद भी कोई यहाँ नहीं आता था, वो तो कुछ वर्ष पहले गुलज़ार के यहाँ आने के बाद यह हवेली लोगों की निगाह
में आई और अब करीब १०० देसी , विदेशी यात्री यहाँ रोज ही आ
जाया करते हैं. 

हालाँकि उनकी इस बात पर उस समय
मेरा यकीन करना कठिन था, क्योंकि जहाँ पहुँचने में हमें इतनी परेशानी हुई थी. वहां
बिना किसी बोर्ड , दिशा निर्देश के कोई बाहरी व्यक्ति किस
प्रकार आ पाता होगा। और उस समय भी और जबतक हम वहां रहे
तब तक, हमारे अलावा वहां कोई भी नहीं आया था. पर शायद यह
बताने के पीछे उन सज्जन का एक और उद्देश्य था – वह शायद
बताना चाहते थे कि,  यूँ तो वह सरकार के कर्मचारी हैं
और निम्नतम तनख्वाह पर ग़ालिब की सेवा करते हैं पर आने जाने वाले यात्री ही कुछ
श्रद्धा भाव दे जाते हैं.

खैर हवेली में प्रवेश करते ही
सामने ग़ालिब की प्रतिमा दिखी जिसे गुलज़ार साहब ने वहां लगवाया है और साइड में
ग़ालिब अपनी बड़ी सी तस्वीर में से कहते जान पड़े –

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत है! कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं.

वाकई उस बड़ी सी हवेली के उस छोटे
से हिस्से में कुछ गिना चुना २-४ सामान ही पड़ा हुआ है।  वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां,

वह शब-ओ- रोज़ -ओ-माह -ओ -साल कहाँ।

यहाँ तक कि उस बरामदे की छत को भी
अभी हाल में ही कबूतरों के आतंक से तंग आकर बनवाया गया है. कुछ दो चार बर्तन हैं।
 जो ग़ालिब के थे वे तो पिछले दिनों चोरी हो गए , अब उनकी नक़ल रख दी गई है।  कुछ दीवान हैं शायर के, एक चौपड़ , एक शतरंज, और
दीवारों पर शायर की कहानी कहती कुछ तस्वीरें। शायद बस यही रहे हों साथी उनके आखिरी दिनों में , और
शायद इसीलिए उन्होंने कहा –

चन्द तसवीरें-बुताँ चन्द हसीनों
के ख़ुतूत,

बाद मरने के मेरे घर से यह सामाँ
निकला ।

हालाँकि वहां उपस्थित उन सज्जन ने
बताया कि सरकार की तरफ से केस चल रहा है और उम्मीद है कि पूरी हवेली को हासिल करके
कायदे से ग़ालिब के हवाले किया जाएगा। क्योंकि ग़ालिब की अपनी सातों  संतानों
में से कोई जीवित नहीं रही अत: उस हवेली का कोई कानूनन वारिस अब नहीं है. लोगों ने
अनाधिकारिक तौर पर कब्जा किया हुआ है. हमने चाहा तो बहुत कि उसकी इस बात पर भरोसा
कर लें. तभी एक बोर्ड पर राल्फ़ रसल के ये शब्द दिखे –

“यदि ग़ालिब अंग्रेजी भाषा में लिखते, तो विश्व एवं इतिहास के महानतम कवि होते “

 मेरे मन में आया – यदि ग़ालिब भारत की जगह इंग्लैण्ड
में पैदा होते, तो वहां इनके नाम का पूरा एक शहर संरक्षित होता।
 भारत में उनके नाम की उनकी गली भी नहीं।

सरकार से तो उम्मीद क्या करनी एक
दरख्वास्त गुलज़ार साहब से ही करने का मन है, एक प्रतिमा हवेली
के अन्दर लगवाई, तो हवेली प्रकाश में आई,कम से कम एक बोर्ड और बल्लीमारान गली के बाहर लगवा दें तो वहां तक आने
वालों को भी कुछ सुविधा हो जाये.

हम उस हवेली से निकल आये उस गली
को पीछे छोड़ आये पर साथ रह गया चचा का यह शेर –

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन 

खाक़ हो जायेंगे हम तुमको ख़बर
होते तक

1 comment:

  1. बहुत अच्छा लगा मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली की दास्तान पढ़कर, लेकिन दुःख भी हुआ वहाँ की स्थिति जानकार. बहुत बड़ा सच कहा आपने कि ग़ालिब अगर अंग्रेजी के लेखक होते तो एक पूरा शहर उनके नाम हो जाता. न जाने क्यों लेखकों या शायरों के प्रति सरकार का रवैया ऐसा है. बहरहाल गुलज़ार साहब का शुक्रगुज़ार पूरे देश को होना चाहिए जिनके कारण ग़ालिब की प्रतिमा तो लगी. आपको बधाई आपने उस जगह को देखा और महसूस किया जहाँ गालिब बसते हैं.

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