अभी हाल ही में दक्षिण अफ़्रीका की एक मार्केटिंग एजेन्सी न्यू वेल्थ वर्ल्ड के टी वी चैनल ने दावा किया है कि भारत के 20,000 (डालरों में गिने जाने वाले) करोड़पतियों में से 17,000 पिछले दो तीन साल में भारत छोड़ कर अपना व्यापार विदेशों में समेट कर ले गये हैं ।यह अतिशयोक्ति भी हो सकती है किन्तु हमारे समाचार पत्र भी 7000 करोड़पतियों के पलायन की बात कर रहे हैं ।ये सब के सब कर्ज लेकर भाग जाने वाले लोग नहीं हैं ।यदि इतने बड़े पैमाने पर पूँजी का पलायन हो रहा है तो यह निश्चय ही देश पर मँडराते हुए किसी गंभीर संकट का पूर्व संकेत है ।यदि सचमुच यहाँ पर ईज़ आफ़ डूइंग बिज़नेस के हालात हैं तो इस पलायन की जरूरत क्यों पड़ी ? इससे मन में अनेक शंकाएँ पैदा होती हैं ।जब देश के अपने ही व्यापारी परिस्थितियों को प्रतिकूल पा रहे हैं तो विदेशी निवेशक किन कारणों से प्रेरित होंगे ?हम एफ़ डी आई को प्रोत्साहन देकर कहीं फिर से "ईस्ट इंडिया कंपनी "को दावत तो नहीं दे रहे हैं ?वह तो खुशी से दौड़े चले आयेंगे । क्या इसी को फ़िशिंग इन ट्रबल्ड वाटर्स नहीं कहा जाता है ?
एक ओर हमारी बैंकिंग व्यवस्था विनाश के कगार पर जा पहुँची है ।दूसरी ओर जो पूँजी इस देश में लगकर विकास को गति प्रदान करती वह पूँजी अब विदेशों में इस्तेमाल हो रही है ।हम कैशलेस होने चले थे पर कैपिटल लैस होते जा रहे हैं ।किसी ने जोक लिखा था कि यदि अडानी भी विदेश चला गया तो ? यह कैसा मज़ाक है ? कुछ तो बात है कि व्यापारी वर्ग यहाँ के हालात में सुरक्षित महसूस नहीं कर रहा है ।हम लोग रात दिन गोरक्षा , हनी प्रीत ,पद्मावत, लव जिहाद, तीन तलाक, मंदिर मस्जिद , एंटी रोमियो जैसे मसलों में उलझे पड़े हैं और उधर एक भयावह संकट बड़ी खामोशी से देश पर अपना शिकंजा कसता चला जा रहा है ।
जब देश का बटवारा हो रहा था तब भी कुछ लोग अपनी जान और माल की हिफ़ाजत करते हुए दबे पाँव वहाँ से पलायन कर गये थे ।हिटलर के समय जर्मनी में भी जो यहूदी समय रहते पलायन कर सकते थे वह खिसक लिये थे ।मुसीबत तो उनपर आती है जिनके पैरों में भागने की ताकत नहीं होती ।
हम जैसे मध्यम वर्ग के लोग इन समाचारों को सुनकर दहशत महसूस कर रहे हैं कि नोट बन्दी की तरह फिर से बैंकों को राहत देने के लिये हमारे वेतन और पेन्शनें बैंक की सुविधा से एक एक हजार रुपये प्रति सप्ताह के हिसाब से न बँटने लगें ।हमने अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिये जो रकम फ़िक्स डिपाज़िट में डाल रखी थी उसपर ब्याज तो पहले ही एक तिहाई कम हो गया था अब कहीं वह डिपाज़िट ही न जब्त हो जाये। हो सकता है कि वह इसी शर्त पर वापस मिले कि जब बैंकों का घाटा पूरा होगा तो आप उसे निकाल सकते हैं ।पर यह बैंकों का घाटा तो सुरसा के मुँह की तरह फैलता ही जा रहा है ।यह न जाने कब पूरा होगा और कैसे पूरा होगा ? पूँजीपति तो अपनी पूँजी समेट कर चल दिये ।अब हमारे अलावा बचा कौन ? हम जैसों को सुरक्षा कौन देगा ? हम किस पर भरोसा करें ?
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