बावजूद इसके कि मुल्क का
आईना उन्हें एक बराबर नागरिक का दरजा देता है,पकिस्तान के कई इलाकों में आज भी
औरतों का वोट देने का हक नहीं हैं। बीती सात मई को ऐसा ही एक वाकया पेश आया। खैबर
पख्तूनख्वा सूबे में पीके 95 हल्के उपचुनाव में हैरान करने वाले तरीके से एक भी
खातून को वोट डालने दिया गया , जबकि इस चुनावी क्षेत्र में 53,000 से अधिक औरतों
के नाम चुनाव आयोग की लिस्ट में दर्ज हैं। मर्द सियासतादां इसे औरतों की अपनी मरजी
बता रहे हैं। मगर औरतों के हक- हकूक के लिए लड़ने वालों और “नेशनल कमिशन ऑन द
स्टेटस ऑफ वुमेन ‘ने जो सबूत जुटाए हैं , वे कुछ ओर ही कहानी कहते हैं। इन
सबूतों के मुताबिक , सियासी जमातों ने आपस में एक तरह तक मुंहजबानी करार कर रखा है
कि औरतों को वोट डालने दिया जाए। मौखिक इसलिए ताकि वैसी रुसवाई न हो, जैसी मई 2013
के आम इंतिखाब के बाद हुई थी । दरअसल, तब पीपीपी, एएनपी और पीटीआई जैसी तथाकथित
उदार सियासी पार्टियों ने बकायदा एक लिखित करार किया था कि औरतें वोट नहीं डालेंगी
और उस कारनामे के खुलासा हो गया था। इस तरह के समझौते देश की आला अदालत के फैसले
की नाफरमानी हैं। अब हंगू में एक जिरगा ने यह हुक्म सुनाया है कि पंचायती इंतियाब
में औरतें वोट नहीं डालेंगी। बहरहाल, पीके-95 हल्के के इंतिखाब के बारे में अब
मुल्क के चुनाव आयोग को फैसला करना है। उसका यह फैसला काफी अहम हो गया है। इस
चुनाव को रद्द किया जाना चाहिए और स्थानीय निकाय के इंतिखाब में औरतों की भागीदारी
पक्की की जानी चाहिए , ताकि पूरे मुल्क में दो टूक व सख्त पैगाम जाए और सियासी
जमातें भी यह जान लें कि वे अदालत और चुनाव आयोग के फैसलों से बंधी हुई हैं। जिस
इंतिखाब में आधी आबादी को वोट डालने से महरूम कर दिया जाए, वह इंतिखाब हो नहीं
सकता। उस मध्ययुग को फिर से जिंदा कर दिया जाए, जिसमें मुट्ठी भर चुनिंदा कबीलों
को वोट डालने का अधिकार था, इस तरह के हालात को आगे जारी रखने की इजाजत नहीं दी जा
सकती।
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