सोशल मीडिया पर आठ सालों में कई अनुभव हुए हैं, उनमे एक अनुभव ये भी हुआ है कि इस प्लेटफॉर्म पर मौजूद मुसलमानो की बड़ी तादाद अभी भी एक महदूद दायरे में चक्कर काट रही है, तालीम की बात की जाये तो उन्हें मदरसों पर खतरा मंडराता नज़र आने लगता है, कईयों को दुनियावी तालीम बदकारी और मज़हब से दूर ले जाने वाली बुराई लगती है, उस पर अगर मुस्लिम औरतों की तालीम की बात की जाये तो हज़ार तर्कों के साथ ना नुकुर और अगर मगर वालों की भीड़ आ खड़ी होती है !
इतिहास में पीछे जाकर देखे तो पता चलता है कि मुसलमानों ने इस्लाम और इस्लामी नज़रिये का गहरा मुताला किया, वो तालीम के बारे में बिल्कुल साफ नज़रिया रखते थे, तालीम ही उनके नज़रियें को विस्तार देती थी, जिससे उनकी अक़ली (बौद्धिक) कुव्वत बढ़ जाती थी, और उन्हे दूसरों का टीचर (अध्यापक) बनाती थी ! इसका नतीजा ये हुआ कि वो अपने वक़्त की सुपरपावर बन गऐ जिन्होंने ने साइंस और तालीम के क्षेत्र में बहुत बडी़ तादाद में योगदान दिया !
मगर आज का मुसलमान तालीम से दूर होता जा रहा है, उसकी प्राथमिकताओं में तालीम शायद सबसे निचले पायदान पर है, एक बार कहीं पढ़ा था कि "मुसलमानों को कभी कोई युनिवर्सिटी, स्कूल या कॉलेज माँगते हुए नहीं देखा, कभी न ही वो अपने इलाक़े में अस्पताल के लिए आंदोलन चलाते हैं और न ही बिजली पानी के लिए, उन्हें चाहिए तो बस एक चीज़. लाउडस्पीकर पर मस्जिद से अज़ान देने की इजाज़त, ये इजाज़त छीन लेने भर की खबर पर सड़कों पर निकल आते हैं !!"
मैंने एक बार मौलाना डॉ. कल्बे सादिक साहब के बयान वाली एक पोस्ट शेयर की थी जिसमें उन्होंने कहा कि "मस्जिदों और इमामबाड़ों में ग्रेनाइट चमकाने से कौम की तरक्की नहीं होने वाली। इससे बेहतर है कि स्कूल और कॉलेजों को बढ़ावा दिया जाए !" इस पोस्ट पर भी मुसलमानो ने जमकर लठैती की थी, उनका इस बयान पर नजरिया एक तरफ़ा था, कल्बे सादिक साहब का कहने का मतलब यही था कि भले ही मस्जिदों और इमामबाड़ों को ग्रेनाइट से चमकाईये मगर साथ ही तालीम को प्राथमिकता के तौर पर लिया जाना चाहिए, आगे बढ़ने और तरक़्क़ी करने के लिए तालीम ही एक ज़रिया है ! स्कूल-कॉलेज भी बनाएं ताकि कौम के साथ सबको इसका लाभ पहुंचे,कौम तरक्की करे और अच्छा समाज बन सके !
मगर अभी भी हमारी प्राथमिकताएं नहीं बदली हैं, ना ही सोच ना ही नज़रिया, ये एक कड़वी सच्चाई है, कल परसों की ही बात है, जैकी चेन को हज कराने के एक फोटो को जानबूझ कर शेयर किया था, और उस फोटो पर मुसलमानो की प्रतिक्रिया सामने रखी थी, और साथ ही एक पोस्ट भारतीय मूल की मुस्लिम औरत हलीमा याकूब के सिंगापुर की राष्ट्रपति बनने की खबर शेयर की थी, मगर प्रतिक्रिया बहुत ही ढंडी थी, जैकी चेन के उस फोटो की दलील इसलिए दे रहा हूँ कि ये और इस जैसी बहुत सी पोस्ट्स , जैसे किसी बड़े गैर मुस्लिम सेलेब्रिटी के इस्लाम क़ुबूल कर लेने की झूठी खबर, चाँद से किसी मस्जिद को देखकर इस्लाम क़ुबूल कर लेने की खबर, और इन झूठी ख़बरों पर तारीफ करते टूट पड़ना, उन्हें हज़ारों की तादाद में शेयर करना, एक बड़ी मिसाल है हमारी प्राथमिकताओं की !
कभी जब तालीम के क्षेत्र में पिछड़ने की बात महसूस होती है तो इस्लामी इतिहास की किताबें खोल कर अतीत की उपलब्धियों का बखान करने लगते हैं, इससे क्या साबित होता है ? यही न कि आपका अतीत सुनहरा था, आपने उसका क्या हाल किया ? ये बताइये कि आपका वर्तमान क्या है, और मुस्तक़बिल के लिए तालीम-ओ-तरक़्क़ी के लिए आप क्या जद्दो जहद कर रहे हो ?
इतिहास की पोटली खोल कर रखने की मनाही नहीं है, नयी नस्ल के लिए ये ज़रूरी भी है, मगर साथ ही वर्तमान में नयी इबारत लिखने की कोशिशें भी जारी रखना चाहिए, तभी मुस्तक़बिल रोशन हो सकेगा, सिर्फ इतिहास की पोटली ही हमें निहाल नहीं करने वाली !
इस बात पर शायर बिरजीस राशिद आरफी साहब का ये शेर याद आ जाता है :-
वो अपनी मुफ़लिसी जब भी छुपाने लगता है !
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तो बाप - दादा के क़िस्से सुनाने लगता है !!
जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार बताया गया है कि देश के कुल 3.7 लाख भिखारियों में से हर चौथा भिखारी मुसलमान है, यानी प्रतिशत के हिसाब से सबसे बड़ा प्रतिशत मुसलमान भिखारियों का हुआ !
मुल्क में वोटर लिस्ट में मौजूद भीड़ से नहीं बल्कि पढ़ लिख कर ओहदों पर पहुँचने वाली भीड़ के तौर पर गिनती बढ़ाइये
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