संघ प्रमुख बनाम प्रणब दा
मेरी तरह बहुत लोगों ने बड़ी उत्सुकता से संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत और भारत के पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी के भाषणों को सुना ।दोनों ही भाषणों में जिस प्रत्यक्ष या परोक्ष आक्रामकता की अपेक्षा थी वह बहुत बारीकी से तलाशने पर भी नहीं मिली ।टक्कर तो बराबर की थी ।एक तरफ़ आर एस एस के प्रमुख जो इस समय देश की सर्वोच्च सत्ता के प्रतिनिधि हैं और दूसरी तरफ़ विपक्षी दल कांग्रेस के वरिष्ठतम और सम्मानित नेता श्री प्रणब मुखर्जी।यह वैचारिक वैषम्य एक घमासान युद्ध का रूप भी ले सकता था । इसी लिये जिज्ञासा का स्तर बहुत ऊँचा था ।
चार साल से हम आर एस एस के लोगों को जिस तरह की असभ्य भाषा और अनर्गल दुष्प्रचार के माध्यम से पहचानते आए हैं उस से संघ प्रमुख को सर्वथा विपरीत रूप में पाया ।भा ज पा के नेताओं और खास तौर पर मोदी जी के एक ही जैसे रटे रटाए भाषण सुनतेसुनते कान पक चुके हैं - सत्तर साल में कुछ नहीं हुआ, गाँधी और नेहरू ने देश का बँटवारा करा दिया, पटेल को प्रधान मंत्री नहीं बनाया , इमर्जेन्सी लगा दी, वंशवाद चलता है , मुस्लिम तुष्टीकरण होता है वगैरह वगैरह ।पर संघ प्रमुख के उस भाषण में ऐसी कोई बयान बाजी का अनुपस्थित होना सर्वथा अप्रत्याशित था ।संघ प्रमुख और प्रधान मंत्री के विचारों और आचरण में इतना भारी अन्तर क्यों है ? दोनों में से कौन आर एस एस का सही प्रतिनिधि है ? यह एक अहम सवाल हैजिसका जवाब जनता को मिलना चाहिये ।
आर एस एस के पास तीन मुद्दे ही प्रमुख हैं - राम मंदिर , धारा 370 और कामन सिविल कोड ।पर संघ प्रमुख ने इनका ज़िक्र तक नहीं किया ।न उन्होंने देश को मुस्लिम मुक्त करने की घोषणा की और न हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात की जबकि भाषण का विषय राष्ट्रीयता ही था ।।भा ज पा के नेता जिस तरह से मुसलमानों और दलितों की हत्या का अनुमोदन करते हैं वह भी अनुपस्थित था ।न गाय, गोबर और गोमूत्र का महिमामंडन था और न साम्प्रदायिक नफ़रत का ज़हर कहीं देखने को मिला ।तो फिर एक सवाल मन में उठता है कि क्या आर एस एस की सोच का दायरा हिंसा , असहिष्णुता और असभ्यता के बाहर भी कभी हो पाना संभव है ? क्या संघ प्रमुख ऐसी ही बातें संघ के सदस्यों से नहीं करते हैं ? फिर वह लोग संघ प्रमुख की अवहेलना क्या जान बूझ कर करते हैं ?
श्री मोहन भागवत के भाषण में भले ही प्रणब दा के भाषण जैसी शास्त्रीयता , तथ्यात्मक वैविध्य और व्यापकता नहीं थी किन्तु जो आडम्बरहीन सरलता थी उसने मन पर गहरी छाप छोड़ी ।क्या वजह है कि आर एस एस के लोग संघ प्रमुख जैसी भाषा का प्रयोग नहीं करते ? उनकी तरह विविधता में अंतर्निहित एकता को नहीं देख पाते ? दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न नहीं करते ? पूरे देश को एक परिवार के रूप में नहीं देख पाते ? लोक तंत्र का सम्मान नहीं कर पाते ? देश को उस राष्ट्र के रूप में नहीं स्वीकार करते जिसमें सब समान रूप से भागीदार हैं ?
आर एस एस में यह घोर अन्तर्विरोध एक अबूझ पहेली बना हुआ है ।उसे विश्व की सबसे बड़ी संस्था होने का गौरव कोई सैद्धान्तिक सोच रखे बिना हासिल हो गया हो , यह संभव नहीं है ।संघ के कार्यकर्ताओं का अनुशासन और सेवा भाव सदैव प्रशंसित होता है ।संघ के लोग देश के सभी प्रशासनिक और संवैधानिक पदों पर आसीन हैं ।फिर उनके माध्यम से संघ प्रमुख के भाषण वाली सोच का प्रसार आज तक क्यों नहीं हुआ ? जिस प्रकार की सत्ता उसके हाथ में है और जिस प्रकार की सोच संघ प्रमुख की दिखाई दी इन दोनों का समन्वय हो जाता तो देश में सर्वत्र शान्ति और सद्भावना का प्रसार नजर आता ।क्या कारण है कि गले में भगवा अँगौछा डाल कर कैसा भी अपराध करने की छूट हासिल हो जाती है ?क्या कारण है कि मुसलमान की हत्या करने वाले की शोभा यात्रा निकाली जाती है ? क्या कारण है कि बलात्कारियों के समर्थन में भा ज पा के नेता सड़क पर आ जाते हैं ? क्या कारण है कि घोड़े पर बैठने का साहस करने वाले दलित की हत्या कर दी जाती है ? ऐसी बहुत सारी बातें हैं जिनके विषय में संघ के विचारकों को आत्म मंथन करना चाहिये ।
उधर कांग्रेसियों को श्री प्रणब मुखर्जी के संघ के कार्यक्रम में जाने पर अकारण ही चिन्ता हो रही थी ।उन्होंने अपने भाषण में राष्ट्रीयता के सभी आयामों का बहुत गुरु गंभीर विश्लेषण किया ।लोग चाहते थे कि वह संघ के खेमे
में जाकर उनकी नीतियों की निन्दा करें, उनको अकल सिखाएँ । किन्तु उन्होंने भी ऐसा कुछ नहीं किया ।केवल कांग्रेस के आदर्शों के आलोक में लोकतंत्र की महत्ता को स्थापित किया ।जिस तरह से संघ प्रमुख ने कोई ओछी बात कहकर कांग्रेस पर कोई प्रहार नहीं किया वैसे ही श्री प्रणब मुखर्जी ने कोई भी निन्दात्मक टिप्पणी नहीं की ।दोनों ने उसी गरिमा का निर्वाह किया जैसी उनसे अपेक्षित थी । बहरहाल इस समारोह में टक्कर तो दो दिग्गजों में थी लेकिन मैच फ़्रेन्ड्ली रहा और अन्त में ड्रा भी हो गया ।न तो एक दूसरे की प्रशंसा की गयी और न निन्दा ।संघ संघ रहा और प्रणब प्रणब ।