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Wednesday, March 14, 2018

पांवों को लहू लुहान करके किसानों ने क्या हासिल किया

किसानों का साज़ और उनके  साज़िंदे 

पैंतीस हजार किसानों की एक सौ सत्तर किलोमीटर लंबी यात्रा पाँच दिन में पूरी हुई ! इतनी बड़ी संख्या में किसानों के रात्रि विश्राम , भोजन , शौच आदि की व्यवस्था कितनी कठिन और खर्चीली रही होगी इसकी कल्पना की जा सकती है ।इतने विराट आयोजन को देख कर लगने लगा था कि इस बार कुछ न कुछ हो कर ही रहेगा ।जनता अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने जब सड़क पर उतर आये तो उसे क्रान्ति कहते हैं,  विप्लव कहते हैं,  इंकलाब कहते हैं ।किसानों का यह मोर्चा तब और भी अमोघ लगने लगा था जबकि इसके आयोजक मार्क्सवादी दल को कांग्रेस, शिव सेना और एन सी पी ने भी अपना समर्थन दे दिया था ।टी वी पर बार बार लाल झंडों और लाल टोपियों का सैलाब-
लाली मेरे लाल की,   जित देखूँ तित लाल
की अनुभूति जगाने लगा था ।

इस दांडी मार्च का नतीजा भी  सरकार विरोधी हर आन्दोलन की तरह टाँय टाँय फिस्स हो गया ।इतनी मेहनत करके,  कड़ी धूप में पैदल चलके,  पाँवों को लहूलुहान करके किसान क्या हासिल करने को निकले थे  ? क्या उनके पास कोई सुविचारित योजना थी या मुँह उठाया और  अपना काम काज छोड़ कर बस यूँ ही निकल  पड़े थे ? यदि साज़ तो हो पर साज़िन्दे न हों तो संगीत समारोह का आडंबर मत रचिये ।इससे हासिल कुछ नहीं होगा ऊपर से आपकी किरकिरी होगी सो अलग ।

किसान आज की राजनीति में असीम संभावनाओं से युक्त एक "मसाला" बनता जा रहा है ।राजनैतिक दलों को लगता है कि किसानों का संगठन सत्ता को चुनौती देने का एक कारगर साधन बनाया जा सकता है ।कभी तमिनाडु के , कभी उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के, कभी राजस्थान के किसान सिर उठाते हैं और मुँह की खाकर खामोश हो जाते हैं ।इस बार  भी इस विशाल पद यात्रा के आगे सरकार के छक्के छूट जाने चाहिये थे ।प्रदर्शन सर्वथा गाँधीवादी और शान्तिपूर्ण था ।सरकार न उस पर लाठी  चार्ज कर सकती थी , न गोली चला सकती थी और न जेल भेज सकती थी ।फिर भी उसने जता दिया कि इस शक्ति के संग्राम में विजय किस की  होगी । सरकार ने कुछ भी न देकर ऐसा जता दिया कि उसने सब कुछ दे डाला है और प्रचार तंत्र ने ढोल बजाना शुरू कर दिया कि किसान संतुष्ट हो गये हैं ।उनकी सारी माँगें मान ली गयी हैं ।किसानों को भविष्य में उनकी माँगें पूरी करने के आश्वासन का लौलीपौप थमा दिया गया और आन्दोलन की हवा निकल गयी ।आश्वासनों के सहारे तो यह सरकार चार साल से चैन की बंसी बजा रही है ।

किसान की समस्या क्या है ? इसके बारे में किसान स्वयं भी स्पष्ट नहीं हैं ।न राजनैतिक दल स्पष्ट हैं और न सरकार ।किसी जमाने में कहा जाता था -
उत्तम खेती मध्यम बान , निखत चाकरी भीख निदान ।
वह जमाने अब लद चुके हैं क्योंकि खेती के व्यवसाय में उसे  "उत्तम "बनाने के सारे साधन लुप्त हो चुके हैं ।हरित क्रान्ति के साथ कृषि का तकनीकीकरण स्वाभाविक था ।किन्तु समस्या यह है कि सरकार ने एक ओर तो तकनीकीकरण को बढ़ावा दिया जिसके बिना अन्न उत्पादन में क्रान्ति नहीं आ सकती थी , दूसरी ओर अपनी समाजवादी प्रतिबद्धता के कारण  जब हरित क्रान्ति अपने उत्कर्ष   पर पहुँची तो अधिकतम जोत सीमा का कानून आ गया।यह आया तो 1974. में पर लागू हुआ 1971 की अवधि से ।इसके अनुसार कोई भी खेतिहर अधिक से अधिक 18. एकड़ भूमि पर कृषि कर सकता है ।नतीजा यह हुआ कि कृषि योग्य भूमि बेहद छोटे छोटे खंडों में वितरित होती चली गयी ।पुरानी जीवन शैली इस से अप्रभावित रह सकती थी जब किसान का पूरा परिवार कृषिकार्य करके अपने भर को अनाज उगा लेता था ।किन्तु आज की जीवनशैली केवल अनाज पर आधारित नहीं है ।किसान के बच्चे भी पढ़ते हैं , उनको भी जूते कपड़े , इलाज , मनोरंजन , शादी ब्याह पर खर्च करने के लिये पैसा चाहिये ।वह भी उन्नत बीज,  खाद,  कीटनाशक न खरीदें तो अनाज नहीं पैदा होगा ।वह भी ट्रैक्टर और हार्वेस्टर के  सहारे खेती करने को बाध्य हैं ।अनाज बेच कर वह इतना पैसा नहीं कमा पाते कि अपनी पारिवारिक और खेती के सारे खरचे निकाल पायें ।उनको बैंकों से कर्ज मिलता है तो भी साहूकारों  की शरण में जाना पड़ता है ।

कर्ज देना और माफ़ करना उनकी समस्या का हल नहीं है ।जिस तरह खाना खा लेने से भूख लगना बन्द नहीं हो जाता वैसे ही कर्ज लेना उनकी जरूरत को पूरा नहीं करता ।स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार एक किसान की आमदनी को एक सरकारी चपरासी के वेतन के बराबर लाना होगा ।इसके लिये दो बातें जरूरी हैं ।एक तो यह कि किसान जो उपभोक्ता सामग्री खरीदे उसके मूल्य के अनुसार उसकी उपज का मूल्य उसे प्राप्त  हो ।यह "पैरिटी औफ़ प्राइस" पूरे संसार में कृषि उत्पादों का मूल्य निर्धारित करती है ।दूसरे यह कि सरकार जो   समर्थन मूल्य घोषित करे उस पर हर किसान का अनाज खरीदे भी । होता यह है कि इस खरीद पर इतनी पाबंदियाँ लग जाती हैं कि प्रायः किसान अपना अनाज औने पौने दामों पर बिचौलियों को  बेचने के लिये बाध्य हो जाते हैं ।मार्केटिंग की यही समस्या फल और सब्जी बेचने पर भी आती है ।अतः सरकार से कर्ज़ माफ़ी के  अलावा उचित मूल्य , उचित मार्केटिंग और जोत की सीमा बढ़ाने की माँग होनी चाहिये ।यदि व्यापार और उद्योग पर कोई अधिकतम सीमा नहीं है तो खेती पर यह प्रतिबंध क्यों  ? आधुनिकतम कृषि तकनीक का पूरा लाभ उठाने से कृषि क्षेत्र को क्यों वंचित रखा गया है   ? क्यों ऐसा भ्रम फैला हुआ है कि किसान को गरीब ही रहना  चाहिये ।क्यों नहीं उसको भी उद्योगों की तरह विकसित करने की  योजनाएँ बनतीं  ? क्यों किसान को केवल आश्वासन का तोहफ़ा मिलता है ? क्यों नहीं कोई राजनैतिक दल किसानों की कर्ज़ माफ़ी के दायरे से बाहर निकल कर कुछ ठोस उपायों पर भी  विचार करता  ? देश की  73% पूँजी यदि 1% लोगों  के पास सिमट गयी है तो यह असंतुलन कृषि क्षेत्र को विकसित करने से ही दूर होगा आश्वासनों से नहीं।

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