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Thursday, September 28, 2017

मुहर्रम पर रस्म रिवाज़ों वे फजूलखर्ची से बचना ज़रूरी

नया इस्लामी वर्ष मुहर्रम से शुरु होता है. महीने मुहर्रम नवासह पैगम्बर इमाम हुसैन उनके साथी और परिवार वालो के खून से लिखा गया है.  चूंकि इस्लामी इतिहास के इस घटना  ने इस्लाम में गुटबाजी की पोल को खोल के रख दिया . आज भी इस घटना के बारे में आपस मे  भेदभाव का शिकार है . एक समूह इस घटना की याद मनाते है और दूसरा समूह इस घटना की याद मनाने से रोकता है . इस बात की परवाह किए बिना इस घटना की याद मनाना चाहिए या नहीं . आवश्यकता इस बात की है कि इस घटना स्मृति में जो संस्कार या रिवाज़ शुरू हो चुका है उनका आकलन किया और सोचा जाए कि उनके संस्कार या रिवाज़ कैसे मानवता के लिए लाभकारी बनाया जा सकता है .

 

 एक अनुमान के अनुसार शुरु मुहर्रम के 10 दिने मे इतने रिवाजो और संस्कारो होते है जैसे   रौज़ा ,  पालना ,  मेंहदी , जुलजानह ,  ताबूत आदि शोक परेड में निर्यात किए जाते हैं . हर साल हजारों नई  ताजिया तैयार की जाती हैं . छवि रौज़ा , छवि पालना , छवि ताबूत , छवि मेंहदी की कीमत कम से कम दो लाख रुपये से शुरू होती है . यानी हर साल मुहर्रम के शुरुआती दस दिनों के दौरान केवल नई  ताजिये, मेहंदी रस्म, जुल्जिनाह आदि की खरीद पर करोड़ों रुपये केवल किए जाते हैं . इसी तरह प्राथमिक दस दिनों में करोड़ों रुपये नियाज़ों पर खर्च किए जाते हैं . ज़ाकरीन और उलमा को मजालस करोड़ों रुपये चुकाए जाते हैं . प्रमुख उलमा और ज़ाकरीन एक सभा के पचास हजार रुपये से दो लाख रुपये तक वसूलते हैं . ठीक प्रारंभिक दस दिनों में अरबों रुपये खर्च किए जाते हैं . अगर यह सब प्रक्रिया पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलेगा कि मानवता और समाज को यह सब अभ्यास से कोई विशेष लाभ नहीं हो रहा है . थोड़ी से सुधार से भावना को मानवता के लिए बहुत सोदमनद बनाया जा सकता है . इन खर्चों की आधी राशि या कुछ हिस्सा भी आधुनिक शिक्षा , अस्पतालों , स्कूल, गरीबो की सहायता  मामलों पर खर्च किया तो कई समस्याओं को कम करने में मदद मिलेगी . कई बच्चों की शादियां संभव हो सकता है , कई बेरोज़गारों को रोज़गार प्रदान किया जा सकता है . जीवन स्तर में सुधार किया जा सकता है . इस भावना का रुख अगर वास्तव में मानवता की ओर मोड़ दिया जाए तो क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है . में कभी नहीं कहता कि रिवाजों को खत्म कर दिया जाए , मेरा मुद्दा यह है कि इन प्रथाओं पर उठने वाले खर्च उचित  हिस्सा मानवता के भलाई के लिये खर्च किया जाना चाहिये.

 

  एक  अनुमान के अनुसार केवल दस मोहर्रम को  करोड़ो से अधिक लोग भारत  में ज़नजीरिज़नी करते हैं  इमाम हुसैन की याद में अपना खून बहाती हैं .  लेकिन वास्तव में ज़नजीरिज़नी की रस्म से मानवता को कोई फायदा नहीं पहुंच रहा है . अगर लोग चाहे तो अपने खून का बेहतर इस्तमाल कर सकते है इस तरह फालतू खून बहाने का क्या लाभ, अगर अपना खून किसी बलडबनक को इमाम हुसैन के बलिदान की याद में दान कर दे . ताकि यह रक्त किसी जरूरतमंद रोगी जान बचाने के काम आ सके . तब वास्तव में खून मानवता के लिए उपयोगी साबित होगा .इस तरह सिर्फ दस मुहर्रम को भारत मे करोड़ो खून की बोतल जमा हो सकती है तो अंदाजा कीजिये पूरे दूनिये मे खून के कितना भंडार जमा हो जाये गा.

 

 यदि व्यासपीठ हुसैनी से नुहा मर्सिया के बजाय ज्ञान और तर्कसंगत चर्चा की जाए , सामाजिक एवं सामाजिक मुद्दों को उजागर किया , समाधान प्रस्ताव किए जाएं , धार्मिक सोच से ऊपर हो कि केवल अच्छे मानव समाज के गठन पर ध्यान दिया जाए तो गैर इंसानी व्यवहार , पूर्वाग्रह , नफरत , भेदभाव के भावनाओं के सामने मानवता , प्रेम , एकता भावनाओं को बढ़ावा दिया जा सकता है

 
रऊफ अहमद सिद्दीकी नॉएडा
संपादक   जनता की खोज न्यूज पेपर

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