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Monday, May 7, 2018

जैसे पेड़ खजूर

बड़ा हुआ तो क्या हुआ ?

आजकल एक अजीब किस्म की दबंगई देखने में आ रही है ।एक दल विशेष बहुमत के साथ सत्ता में आ गया है ।इससे इस दल के अदना से अदना नेता को भी यह गुमान हो गया है कि वह ज्ञान के मामले में किसी अरस्तू या सुकरात से कम नहीं है।कोई कहता है कि बाल विवाह करने से लव जिहाद नहीं होगा,  कोई कहता है कि मैगी खाने  से बलात्कार हो जाता है,  कोई कहता है कि महाभारत में इंटरनेट मौजूद था,  कोई कहता है कि हर हिन्दू को आठ बच्चे पैदा करने चाहिये ।बात इनकी बौद्धिक विकलांगता  तक सीमित नहीं है ।ये जब चाहें कानून और व्यवस्था को भी  अपने सामने घुटने टेकने पर मजबूर कर सकते हैं ।ये एयर लाइन्स के उच्च पदाधिकारी की पिटाई लगा सकते हैं ।ट्रेन को अपने आदेश पर चलने के लिये बाध्य कर सकते हैं ।प्रशासनिक  अधिकारी को थप्पड़ मार सकते हैं ।पुलिस कर्मी तो आए दिन इन नेताओं से पिटा ही करते हैं ।कदम - कदम पर इनका दंभ जनता को लाल - लाल आँखें दिखाता हुआ  यह सवाल पूछता है  - जानते नहीं मैं कौन हूँ  ?

हुज़ूर माई बाप,  हम जानते हैं कि आप सरकार हैं ।पर शायद आप खुद नहीं जानते कि आप सरकार हैं ।आप यह तो   जानते हैं कि एक अकेले नेता के धुआँधार भाषण पूरी पार्टी को लोक सभा के अलावा देश के 20 राज्यों पर कब्ज़ा दिला सकते हैं पर आप यह नहीं जानते कि कब्ज़ा पाने के बाद उक्त पार्टी पर सरकार चलाने की जिम्मेदारी भी आ जाती है ।वह सरकार किस काम की जो केवल अपने और अपने चहेतों के ठाट बाट पर देश की सारी संपत्ति स्वाहा कर दे । जनता की अपेक्षाओं की तरफ़ से अपनी आँखें पूरी तरह से बन्द किये रहे। सुशासन के नाम पर  भाषण ही  भाषण पेलती रहे ।

कबीर दास ने लिखा था -

बड़ा हुआ तो क्या हुआ,  जैसे पेड़ खजूर ।
  पंथी को छाया नहीं ,  फल लागे अति दूर ॥

खजूर का पेड़ होने को तो बहुत बड़ा है पर उसकी उपयोगिता क्या है ? पथिक उसकी छाया में विश्राम नहीं  कर सकता है और उसका फल इतनी दूर होता है कि कोई उसको तोड़ कर अपनी भूख नहीं मिटा सकता ।यानी आपकी सार्थकता सरकार बना लेने में नहीं उसका लाभ जनता तक पहुँचा देने में है ।आपको पता भी है कि जनता क्या चाहती है  ?

धर्म के नाम पर मारकाट , बलात्कार और दंगा फ़साद आपके कुछ उपद्रवी समर्थकों  को हिंसक आनन्द  भले ही प्रदान करता हो पर आम भारतीय हिन्दू या मुसलमान  सौहार्द्र - प्रिय है ।वह सदियों से धार्मिक और सामाजिक विभिन्नताओं  के प्रति सहिष्णु रहा  है ।सरकार से उसकी सबसे बड़ी अपेक्षा है कि वह ऐसा  शान्ति पूर्ण वातावरण प्रदान करे  जिसमें आम जनता सुरक्षित महसूस करे । उसके जीवन में स्थायित्व हो ।वह अपने वर्तमान और भविष्य की खुशहाली को अंजाम देने के लिये उद्यम कर सके ।

उद्यम प्रदान करना किसी भी सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।मौजूदा सरकार सालाना तीन करोड़ रोज़गारों का सृजन नहीं कर सकी तो कोई बात नहीं ।लेकिन आम नागरिक चिन्तित इस बात से होता है कि बिना किसी पूर्व सूचना या तैयारी के यह सरकार अकस्मात कोई भी नया कानून बनाती  है और धड़ाम से  लाखों लोग सड़क पर आ जाते हैं ।नोट बन्दी और जी एस टी ने  रोजगार के क्षेत्र में जो तबाही मचाई थी वह  किसी सुनामी से कम नहीं थी । और भी ताबड़तोड़ लिये गये  छोटे-  छोटे फ़ैसले इस तबाही के  लिये जिम्मेदार रहे हैं ।गो वध पर प्रतिबन्ध लगा , लाखों लोग बेरोज़गार हो गये ।शराब बन्दी आई , लाखों लोग बेरोज़गार हो गये ।शिक्षा नीति बदली , लाखों शिक्षा मित्र बेरोजगार हो गये , एन सी ई आर टी की पुस्तकें अनिवार्य कर दी गयीं , लाखों निजी प्रकाशनों से जुड़े हुए लोग बेरोज़गार हो गये ।इस आए दिन के बेरोज़गारी  बढ़ाओ अभियान का शिकार हो चुके लोग कैसे यह मान लें वह  खुशहाल हैं  ? या उनके खुशहाल हो जाने  की कहीं कोई संभावना है ।

खुशहाल रहने के लिये धन चाहिये ।आवश्यक सुविधाएँ चाहिये ।देश की 80%  जनता कृषि और छोटे उद्योगों पर निर्भर थी ।उस साधारण जनता की आर्थिक हैसियत पर बढ़ती हुई महँगाई और टैक्सों की लूट ने डाका डाला है ।
सरकार की अनुभव हीनता के परिणाम स्वरूप देश की 73%  पूँजी केवल 1% बड़े उद्योग पतियों की तिजोरी में पहुँच गयी ।किसानों , मजदूरों और मिडिल क्लास के हाथों से पर्चेज़िंग पावर छीन लेने के बाद यहाँ या विदेश के उद्योगों में बने माल को खरीदेगा कौन ? कहीं हम अफ़रा तफ़री में चीन और अमेरिका की नकल करके अपने ही पैरों पर  कुल्हाड़ी तो नहीं मार रहे हैं  ? कहीं ऐसा न हो पूरी की लालच   में आधी रोटी से भी हाथ धो बैठें ।पतलून की फ़िराक में लँगोटी भी गँवा दें ।

हमें ऐसी सरकार चाहिये जो सरकार की तरह से काम भी करे ।उसमें और छोटे बच्चों के मन गढ़न्त खेलों में अन्तर होना चाहिये ।बच्चे जब डाक्टर-  डाक्टर खेलते हैं तो अपने को  डाक्टर समझते हैं , पर होते नहीं हैं ।वह एक दूसरे के कपड़े पकड़ कर रेल-  रेल खेलते हैं पर वह रेल नहीं होती है।एक लाठी पर बैठ कर टिक- टिक - घोड़ा कह कर दौड़ते हैं पर वहाँ कोई घोड़ा नहीं होता ।उसी तरह से सरकार को  सरकार - सरकार खेलना बन्द करके  सचमुच में सरकार चलानी चाहिये,  सचमुच में विकास करना चाहिये , सचमुच में सबको साथ लेकर चलना चाहिये , सचमुच में कम से कम उतना तो  कर ही देना  चाहिये जो अभी तक की तथा कथित निहायत निकम्मी,   भ्रष्ट और लुटेरी सरकारें करती रही हैं ।