भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को महाराष्ट्र की महार जाती में हुआ था। इस जाती के लोग मैला उठाने का काम करते थे और इन्हें उच्च जात द्वारा अपवित्र माना जाता था। इन लोग को मंदिरों में प्रवेश की इजाज़त नही थी साथ ही अनेक सामाजिक और धार्मिक निषेध इन्पर लागू थे।
दक्षिण के त्रावंकोर राज्य में तो अछूतों को गले में घंटी पहनाकर कर चलने की प्रथा थी ताकि उच्च जात वालो को इनकी घंटी की आवाज़ से इनके आस पास होने की आहट मिल सके जिससे वह इनकी अपवित्र परछाई के संपर्क में आने से भी बच सकें।
इस हद तक छुआ छूत चरम पर थी उस समय के आंबेडकर साहब जब पढ़ लिख कर बाबू बन कर अपने ऑफिस में आए तो उनका चपरासी तक उनको पानी का ग्लास दूर से देता था ताकि उनका हाथ उसके छु न जाए और उसकी उच्च जात अपवित्र न हो जाए।
आंबेडकर साहब जान गये थे के इस छुआ छूत की बिमारी से निजात कानून बना कर ही ली जा सकती है।
इसलिए उन्होंने दलितों को शिक्षा ग्रहण करने की वकालत की और साथ ही कानूनी स्तर पर दलितों को समाज में बहतर स्थान दिलाने का प्रयत्न किया।
आज आंबेडकर साहब के प्रयासों का ही नतीजा है जो हम अस्प्रश्यता को समाज में कम होता देख पाए हैं।
लेकिन ये कहना कतई ग़लत नही होगा के आज भी उच्च जाती के तमाम लोगो के दिलो से नीची जाती के लिए नफरत और घ्रणा को हम निकाल नही पाए हैं।
मैं अक्सर देखती हूँ दलितों के ऊपर लिखने वाले आंबेडकर पर भाषण देने वाले पढ़े लिखे लोग भी नीची जाती के पढ़े लिखे व्यक्ति को अपने साथ खड़ा पाकर मूह नाक सिकोड़ते हैं। हैरत होती है मुझें के हमारा समाज सभ्य हुआ भी है के बस हम दिखावा कर रहे हैं?
शायद अस्प्रश्यता को जड़ से मिटाने के लिए केवल कानून ही काफी नही
इसके लिए हमे लोगो के दिलो को भी बदलना पड़ेगा तभी सही मायने में छुआ छूत की भावना मिट पाएगी अन्यथा दोगला चरित्र लिए उच्च जात के कुछ ठेकेदार निम्न जात को हीन द्रष्टि से तकते रहेंगे और साथ ही मूह नाक सिकोड़ कर उनके हक के लिए लड़ने का ढोंग भी करते रहेंगे।